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चले निरंतर साधना –कात्रे गुरुजी

विजयलक्ष्‍मी सिंह | छत्तीसगढ़

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कुष्ठ रोग की कल्पना मात्र से ही मन सिहर उठता है, गल चुके हाथ पैर, घावों से रिसता मवाद, आसपास भिनभिनाती मक्खियाँ, समाज से बहिष्कृत घृणा के पात्र, नारकीय जीवन जीते रोगी। आज से 50 वर्ष पहले जब इनके अपने इन्हें अभिशाप मानकर त्याग देते थे, तब किसी ने अपने स्नेह का आँचल फैलाकर उनके सारे दर्द को समेटा। उनके घावों पर आत्मीयता का लेप लगाकर उन्हें सक्षम समर्थ बनाकर स्वाभिमान के साथ जीने की राह दिखाई।


स्वयं कुष्ठ रोगी होकर चापा (मध्यप्रदेश) में सबसे बड़े लेप्रेसी सेंटर की नींव रखने वाले सदाशिव गोविंदराव कात्रे को संघ में हम सभी कात्रे गुरूजी के नाम से जानते है। अपने टेढ़े-मेढ़े हाथ पैरों से घंटो साइकल चलाकर गाँवगाँव भटककर कुष्ठ रोगियों के लिए एक मुठ्ठी अनाज इकठ्ठा करके उन्होंने इस सेवाकार्य की शुरूआत की। गोलवलकर गुरूजी की प्रेरणा से एक अभिशप्त कुष्ठ रोगी का जीवन सेवा का ऐसा दीपक बन गया जिसके प्रकाश में पीढ़ियाँ जगमगाएँगी। 




आज चापा का कुष्ठ निवारण संघ कुष्ठ रोगियों के लिए स्वर्ग माना जाता है, जहां रोगियों को इलाज के साथ-साथ आत्मीय स्नेह संस्कार-युक्त सरस वातावरण मिलता है। मोमबत्ती बनाना, दरी बुनना, रस्सी बुनना, चॉक बनाना, जैसे कामों को कर वे स्वाभिमान के साथ जीते हैं। इन 300 रोगियों के बच्चों की पढ़ाई के लिए यहां सुशील विद्यालय छात्रावास भी है। 




मध्य प्रदेश के गुना जिले के अरोन कस्बे में रहने वाले गोविन्द कात्रे राधा भाई की संतान सदाशिव तीन बहनों में एकलौते भाई थे। मात्र 8 वर्ष की उम्र में पिता को खोने के वाद सदाशिव का पूरा जीवन संघर्ष करते बीता। माध्यमिक शिक्षा के बाद ही रेल्वे की नौकरी करते समय वे संघ से जुड़े 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध के समय 6 माह जेल भी गए। जिंदगी ने उनकी कई कठिन परीक्षाएँ ली।


पत्नी बायोताई कम उम्र में ही चल बसीं, बहन ने अमानत के रूप में रखी संपत्ति व  गहने वापस नहीं किए। कुष्ठ रोग से शरीर जर्जर हो चुका था तो पास में धन था ही कोई अपना। जिस इसाई मिशनरी के हास्पीटल में अपना इलाज कराया वहाँ सेवा की आड़ में हो रहे धर्मांतरण का विरोध करने के कारण निकाल दिया गया| जब सारे रास्ते बंद हो गए थे तब उनकी भेंट गुरूजी से हुई उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने अपने ही जैसे समाज में बहिष्कृत  जीते जी नरक भोग रहे इन रोगियों का जीवन संवारने का संकल्प लिया। 


सौंठी के पास घोगरा नाला कुष्ठ बस्ती में एक छोटी सी झोपड़ी में 2 रोगियों की मरहम पट्टी उनके भोजन की व्यवस्था से कात्रेजी ने अपना कार्य शुरू किया। पैरों में घाव होने के कारण वह पैदल नहीं चल पाते थे, इसलिए 60 वर्ष की उम्र मे साईकल चलाना सीखा। चबूतरे का सहारा लेकर साइकिल पर चढ़ते चापा के नजदीक के अफरी, लर्खुरी, बिर्रा जैसे गाँवों में 20-20 किलोमीटर साईकिल चलाकर रोगियों के लिए अन्न संग्रह करते वापस आकर स्वयं पकाकर उन्हें खाना खिलाते साथ ही उनकी मरहम पट्टी भी करते थे। जहाँ जाते कभी-कभी तो सिर्फ अपमान घृणा मिलती कोई भी एक गिलास पानी तक के लिए भी नहीं पूछता था किंतु उन्होंने हार नहीं मानी। रोगियों की संख्या बढ़ी, तो सदाशिव के प्रयासों से कुछ सहयोगी भी जुड़ गये। चापा में जब आश्रम के लिए जमीन दान में मिली तो रेलवे की नौकरी छोड़ने पर मिली राशि से उन्होंने वहां चार कमरे बनवाए।




धीरे- धीरे आश्रम में आवास छोटी सी गौशाला भी तैयार हो गई। आज 85 एकड़ भूमि में बसे भारतीय कुष्ठ निवारक संघ चापा में 300 से अधिक रोगी केन्द्रीय खेती करते हैं, यह एक ऐसा आत्मनिर्भर सेवा प्रकल्प हैं जहाँ 150 गोबर-गैस प्लांट है खेती के जरिए, लगभग 1000, बोरी दाल ,चावल समेत सभी आवश्यक वस्तुएं उपजा ली जाती हैं। सिचाईं भी परिसर में स्थित माधव सागर तालाब से की जाती है।




परिसर में लगी कात्रेजी की मूर्ति को नमन करते हुए यहाँ के प्रबंधक दामोदर बापट बताते हैं कि- जिस पिता को इकलौती पुत्री के ससुराल से अपमानित कर निकाल दिया गया था उसने सैंकड़ों रोगियों के सम्मान की रक्षा की, उनके जीवन को जीने लायक बनाया। कात्रेजी अब हमारे बीच नहीं है, पर चापा में उनकी जलाई सेवा की मशाल अंधकारमय जीवनों को प्रकाश देती रहेगी।

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