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एक अहर्निश सेवायात्री- दामोदर गणेश बापट

विजयलक्ष्‍मी सिंह | छत्तीसगढ़

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न तो वे कुष्ठ रोगी थे न ही उन्होंने किसी अपने को देह गला कर, हाथ पैर ठूंठ कर देने वाली इस भयानक बीमारी से जूझते देखा था। फिर भी जीवन के 46 वर्ष एक स्वस्थ व्यक्ति ने उन कुष्ठ रोगियों की सेवा में बिता दिए जिन्हें देख कर लोग घृणा से मुंह फेर लेते थे। क्या मां, क्या बेटी या फिर पत्नी सबसे नजदीकी रिश्ते भी जिनसे पल्ला झाड़ लेते थे ऐसे अभिशप्त रोगियों की मरहम पट्टी से लेकर उनके आर्थिक व सामाजिक पुनर्वास की लंबी लड़ाई लड़ी श्री दामोदर गणेश बापट ने। छत्तीसगढ़ के चांपा जिले के सोंठी में स्थित 125 एकड़ में फैले भारतीय कुष्ठ निवारक संघ चांपा में बापट जी ने कुष्ठ रोगियों को आत्म सम्मान व स्वावलंबी जीवन जीने की राह दिखाई। जीवनभर सेवा के पथ पर चलकर 2018 में पद्मश्री से सम्मानित होने वाले इस आधुनिक संत ने अंत में अपना शरीर भी मेडिकल रिसर्च के लिए दान कर दिया।


महाराष्ट्र के अमरावती जिले के छोटे से गांव पथरोट में 29 अप्रैल 1935 को जन्मे बापट जी बचपन से ही संघ के स्वयंसेवक थे। पिता गणेश विनायक बापट व मां लक्ष्मी देवी संघ के संस्थापक हेडगेवार जी को ईश्वर का अवतार मानते थे, क्योंकि बाल्यकाल में घोर गरीबी से जूझ रहे गणेश विनायक जी के रहने,भोजन व पढ़ाई की नि:शुल्क व्यवस्था पूजनीय डॉक्टर साहब ने ही की थी। यही भाव इस दंपत्ति की तीसरी संतान गणेश में था। बी.काम करने के बाद जब गणेश का व्यवसाय में मन नहीं लगा तो वो 32 वर्ष की उम्र में वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़कर घोर वनवासी गांव जशपुर में बच्चों को पढ़ाने लगा।




कात्रे जी व बापट जी का मिलना मानो नियति का रचा हुआ प्रसंग था। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसे कोलकाता में नरेन्द्र की राह देख रहे थे, ठीक वैसी ही अवस्था भारतीय कुष्ठ निवारक संघ चांपा के संस्थापक कात्रे गुरुजी की थी जो कुष्ठ रोग के प्रकोप से ठूंठ हो चुके हाथ पैरों से दस वर्ष से आश्रम की व्यवस्था संभाल रहे थे। बापट जी 1972 में पहली बार जब आश्रम देखने चांपा पहुंचे तब से वहीं के होकर रह गए। समय के साथ कात्रे जी और कमजोर होते गये तब बापट जी इस सेवाश्रम का प्रबंधन अपने हाथों में लेकर कात्रे जी के सपने को पूरा करने में जुट गए। इस युवा प्रबंधक के समक्ष कई चुनौतियां थीं। उन दिनों स्वस्थ हो चुके कुष्ठ रोगी भी डिप्रेशन का शिकार थे, क्योंकि वे सभी अपने आप को नकारा व समाज के लिए अभिशाप मानते थे। किंतु बापट जी ने मरीजों की स्वयं मरहम पट्टी कर बाकी समाज को यह संदेश दिया कि छूने से कुष्ठ नहीं फैलता है। वे देशभर में घूम कर न सिर्फ आश्रम के लिए धन संग्रह करते रहे बल्कि कुष्ठ के बारे में समाज में फैली भ्रांतियों को दूर करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। मरीज मन से भी पूरी तरह स्वस्थ हो जाएं इसलिए आश्रम में सब्जियां उगाने से लेकर चॉक बनाने, दरी व रस्सी बनाने जैसे काम शुरू किए। आश्रम पर खुद को भार समझने वाले रोगी जब खुद कमाने लगे तो संतोष से उनके चेहरे खिल उठे।




बापट जी के साथ वर्षों से आश्रम का प्रबंधन देख रहे संघ के प्रचारक सुधीर देव जी बताते हैं कि 4 एकड़ भूमि पर बना माधव सागर तालाब कुष्ठ रोगियों ने स्वयं बहुत दिनों तक मेहनत कर तैयार किया है। आज आश्रम वासियों के सहयोग से 65 एकड़ भूमि पर खेती एवं 5 एकड़ भूमि पर बागवानी की जाती है। खेती से ना सिर्फ आश्रम वासियों की जरूरतें पूरी होती हैं बल्कि सालाना 13 लाख रुपए की आमदनी भी होती है।


बापट जी एक कुशल प्रशासक के साथ-साथ एक प्रखर विचारक भी थे, इसलिए जब कुष्ठ आश्रम की क्षमता बढ़ी तो वहां कुष्ठ रोगियों के साथ ही टी.बी.  के रोगियों के इलाज के लिए 20 बिस्तरों का संत घासीदास अस्पताल भी शुरू किया। इस हॉस्‍पीटल में कैंप लगाकर मोतियाबिंद के ऑपरेशन नि:शुल्क किए जाते हैं। अब तक 10,000 से अधिक सफल ऑपरेशन किए गए हैं। गरीब वनवासी बालकों के लिए सुशील बाल गृह के नाम से छात्रावास शुरू किया गया। 


जीवन भर पुरस्कारों से दूर रहकर सादगी पूर्ण जीवन बिताने वाले बापट जी ने पद्मश्री मिलने पर कहा था कि “मेरा सच्चा पुरस्कार वह स्वस्थ मनुष्य है जो आश्रम में कुष्ठ रोग का इलाज कराने के बाद अपने परिवार में लौट गया है।"


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