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विजयलक्ष्मी सिंह | महाराष्ट्र
सरकारी नौकरी करने वाले किसी भी शिक्षक के लिए रिटायरमेंट का दिन उसके लिए ढेर सारा आराम व मनमुताबिक फुरसत लेकर आता है। किंतु कुछ लोग चिर युवा होते हैं, वे जीवन की अंतिम सांस तक काम करते रहते हैं। स्वर्गीय किशाभाऊ पटवर्धन भी ऐसे ही एक बिरले इंसान थे। पूना के एक सरकारी विद्यालय से प्रिंसिपल के रूप में रिटायर होते ही उन्होंने अपने लिए एक नया कर्म क्षेत्र चुना। जीवन की इस दूसरी पारी में किशाभाऊ ने गरीब मेधावी बच्चों को पढाने व बढ़ाने के लिए स्वरूप वर्धिनी नामक संस्था की स्थापना की। अपने जीवन के 10 वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे किशाभाऊ ने स्वरूप वर्धिनी की शाखा में शिक्षा का आयाम जोड़कर उसे बहुमुखी बनाया।
25 दिसंबर 1920 को पुणे में जन्मे किशाभाऊ बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। युवावस्था में कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़कर गुरु गोलवलकर जी के राष्ट्र निर्माण के लिए समय देने के आह्वान पर वे संघ के प्रचारक बन गए। लगभग 10 वर्ष महाराष्ट्र के अलग अलग शहरों में कार्य करने के बाद लौटकर एम.एस.सी व बी.एड कर वे सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल हो गए। शिक्षक होते हुए भी उन्होंने अपने अंदर विज्ञान के छात्र को सदैव जिंदा रखा, शायद इसीलिए वह जीवन भर शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयोग करते रहे। नौकरी के दौरान वे टैलेंटेड स्टूडेंट्स को निखारने व उन्हें समाज के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए कार्य कर रही ज्ञानप्रबोधिनी का अहम हिस्सा रहे। वहां काम करते हुए उनके मन में विचार आया कि योग्यता किसी एक वर्ग का की बपौती नहीं है, मलिन बस्तियों में रहने वाले निर्धन परिवारों के योग्य बच्चे सिर्फ इसलिए आगे ना बढ़ सके कि उन्हें कोई दिशा दिखाने वाला नहीं है। फीस नहीं भर पाने के कारण मजबूरी में उन्हें पढ़ाई छोड़ना पड़े ऐसा उनकी प्रतिभा के साथ अन्याय है। एक शिक्षक की इसी सोच ने 13 मई 1979 को स्वरूप वर्धिनी को जन्म दिया।
पुणे के मंगलवार पेठ कस्बे में रामकृष्ण थ्रेड वाइंडिंग इंडस्ट्रीज वर्कशॉप के शेड में 12 बच्चों के साथ संस्था की पहली शाखा लगी। आज पूना में स्वरूप वर्धिनी की 16 शाखाएं लगती हैं , इनमें 800 से अधिक बच्चे दंड अभ्यास, देश भक्ति गीत, के साथ ही मैथ्स, साइंस, व अंग्रेजी की पढ़ाई करते हैं। इसके अलावा भी संस्था कई क्षेत्रों में कार्य कर रही है। 1988 में संस्था का अपना भवन बनने के बाद किशाभाऊ ने परिसर में पाकोली नाम की शिशुशाला शुरू की जिसमें 3 से 5 वर्ष बच्चे (जिनके माता-पिता मजदूरी करते हैं) वहां प्राथमिक ज्ञान सीखते हैं। बढ़ती उम्र के साथ किशाभाऊ का जुनून भी बढ़ता गया व स्वरूप वर्धिनी में नए-नए आयाम जुडते गए। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई कढ़ाई बुनाई के साथ नर्सिंग की वोकेशनल ट्रेनिंग दी गई। आसपास के गांव के से गत 10 वर्षों में 3000 से अधिक लड़कियां नर्स बन चुकी हैं। उनकी यात्रा यही नहीं रुकी पटवर्धन जी ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बहुत कम फीस में कोचिंग क्लासेज शुरू की। इन क्लासेस से पिछले 17 सालों में 200 से अधिक ऑफिसर निकले हैं।
किशाभाऊ की संगठन क्षमता का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे. स्वरूपवर्ध्दिनी के भवन का शिलान्यास संघ सरसंघचालकजी के हाथों करवाने वाले इस स्वयंसेवक ने संघ के घोर विरोधी तबके के लोगों को भी स्वरूपवर्धिनी से जोडा। संघ के सेवाविभाग के पालक अधिकारी श्री सुहासराव हीरेमठ जी की मानें तो किशाभाऊ एक समर्पित व ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता थे अपने आचरण व व्यवहार से वे लोगों को बहुत जल्दी अपना बना लेते थे।
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