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शशांक सावजी | नागपुर | महाराष्ट्र
कमरे की लाइट ऑन करते ही वो महिला अचानक जोर-जोर से चीखने लगी- “………. बबब…बब ब ब….बंद करो यह रौशनी…..ह ह ह …हटाओ इ…इ इसे यहाँ से ….. जाने दो मुझे…. न न नहीं रहना म म..म मुझे यहाँ” पति के देहांत के बाद इस वृध्दा की देखभाल करने वाला कोई न था। घर का इलेक्ट्रिसिटी कनेक्शन कट जाने के चलते मजबूरी में 9 साल अंधेरे में रही रजनी देवी को तो अब उजाले से डर सा लगने लगा था। तभी उनका हाथ थामा विजया परिवार ने। नागपुर से 60 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव डोंगरमौथा में स्थित इस सेवाश्रम मे असाध्य बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की जीवनपर्यंत सेवा की जाती है। राष्ट्रीय सेवा भारती से सम्बद्ध इस संस्था की स्थापना खुद को संघ का अतिथि स्वयंसेवक मानने वाले डॉ.शशिकांत रामटेक ने फरवरी 1997 में नागपुर (अब डोंगरमौदा) में किराए के दो कमरे के मकान से की थी। ऐसे विषम रोगी, जिनमें सुधार की कोई गुंजाइश न बची हो, यहां तक कि परिजनों के साथ-साथ डॉक्टर्स तक ने भी हाथ खड़े कर दिए हों, उन्हें यहाँ लाकर उन्हें गरिमापूर्ण जीवन ही नहीं ससम्मान अंतिम विदाई देना विजया परिवार का ध्येय है।
गरिमाजी को तो उनके रिश्तेदारों ने पागल घोषित कर दिया था। हालात ये थे कि पागलपन का दौरा पड़ने पर उनको काबू करने के लिए पलंग तक से बांधने की नौबत आ जाती थी। तब मजबूर होकर उनके परिजन ही इन्हें विजया हेल्थ एंड एजुकेशन सोसायटी के नाम से पंजीकृत इस सेवाआश्रम में छोड़कर गए। यहां आसरा पाने के लिए उम्र जात धर्म कुछ भी मायने नहीं रखता। ये तो एक अनूठी सेवायात्रा है जिसमें अब तक 3 साल के बालक से लेकर 98 वर्ष के बुजुर्ग तक 301 रोगियों को जीवन की अंतिम सांस तक यहां आश्रय मिला है। अनाथ व शारीरिक रूप से अशक्त 22वर्ष के मुकेश को ही लें भला एक विकलांग युवक का भार रिश्तेदार क्यों उठाते, यदि सेवाश्रम में आसरा न मिलता तो इस युवक का पूरा जीवन सड़क पर भीख मांगते गुजर जाता।
मुकेश जैसे कितने ही निराश्रय व निरीह रुग्ण यहां आश्रय पा शेष जीवन की दुरुहता के पाश से कुछ मुक्ति का अनुभव कर पा रहे हैं। शशिकांत जी बताते हैं- विजया परिवार की 22 वर्ष की यात्रा आसान नहीं रही है। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए धन जुटाने के उपक्रम में अपमान और तिरिस्कार भी झेला है। सरकारी दरवाजों पर भी दस्तक दी, मगर सरकारी किताब भी वृद्धाश्रम के पार कुछ और समझती ही न थी। मगर जहाँ चाह वहां राह-अनगिनत कठिनाईंयों को पार करता हुआ कभी किराए के कमरे से शुरू हुए सेवाश्रम के पास आज 13000 स्क्वेयर फिट जमीन पर 20 सुविधायुक्त कमरे हैं जिसमें 31 रोगियों को रखा गया है।
शशिकांतजी बताते है विजया परिवार' के द्वार साध्य व असाध्य दोनों ही प्रकार के रोगियों के लिए हमेशा ही खुले रहते हैं। दुसाध्य व्याधियों से ग्रसित इन रोगियों का 'भारतीयता' के भाव से नाता न टूटे इस बात का सेवाश्रम में विशेष ध्यान रखा जाता है। रोगियों के देहांत के बाद उनका 'सम्मानपूर्वक' क्रियाकर्म एक परिजन की भांति ही किया जाता है। शशिकांतजी की इस सेवायात्रा में हर कदम पर कभी मां बनकर तो कभी नर्स बनकर रोगियों की सेवा करने वाली श्रीमती निशिगंधा रामटेके अपने भाव कुछ इस तरह से व्यक्त करती हैं। " आश्रम में आने से पूर्व रोगियों ने अपना जीवन कैसे जिया? ये हमें पता नहीं, लेकिन यहां आने के पश्चात वे अपने ही मलमूत्र पर मरें-गिरें यह हम नहीं होने देंगे। चिकित्सा के साथ-साथ एक दीपक की भांति खुद जल कर आश्रम के सेवाव्रती इन रोगियों के शुष्क जीवन में मानवीय स्पंदन की गरमाहट पहुचानें में इस दंपत्ति ने अपने जीवन के 22 वर्ष होम कर दिए। इन 22 वर्षों में संघ परिवार ने समय समय पर सेवाश्रम को आर्थिक सहयोग दिया है। इस कहानी में पात्रो के नाम काल्पनिक दिए हैं ताकि उनके सम्मान को कोई ठेस न पहुंचे ।
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