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हिमालय पुत्र डॉ. नित्‍यानंद

पारितोष बंगवाल | हिमाचल प्रदेश

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ईश्वर ने अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान किया है उत्तराखंड को। पहाड़ों की रानी मसूरी को देखने तो लाखों पर्यटक मानो खिंचे चले आते हैं। परंतु इस खूबसूरती से पहाड़ियों के जीवन की कठिनाईयां कम नहीं हो जाती। पहाड़ की इसी पीड़ा को सच्चे मन से समझने व दूर करने की लड़ाई यदि किसी ने जीवन भर लड़ी है तो वह थे प्रोफेसर नित्यानंद। देहरादून के डी.बी.एस कॉलेज में भूगोल के प्रोफेसर रहे नित्यानंद जी का पूरा जीवन सेवा समर्पण व त्याग की अनूठी मिसाल है। 1991 में दशहरे के दिन गढ़वाल में आए विनाशकारी भूकंप से प्रभावित परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने व उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए नित्यानंदजी ने मनेरी को केंद्र बनाकर संघ के स्वयंसेवकों द्वारा 50 गांवो में शुरू किए गए सेवाकार्यों का मार्गदर्शन किया। 1975 से पार्शियल पैरालिसिस से ग्रस्त इस कर्मयोगी ने  डॉ. की सलाह को अनदेखा कर पहाड़ पर प्रवास जारी रखा। भूकम्प के बाद पीडित परिवारों को बर्तन, बिस्तर, व अन्य जरूरत की वस्तुएं बांटने व बच्चों को पढ़ाने के अलावा 400 से अधिक परिवारों को भूकंपरोधी घर बनाकर दिए गए। 1945 से जीवन की अंतिम सांस तक संघ के पूर्णकालिक  (बरसों तक प्रांतकार्यवाह रहे) डॉ नित्यानंद को  उत्तरांचल  दैवीय आपदा पीड़ित सहायता समिति के गठन का श्रेय जाता है जो 14 बरसों से देश के किसी भी हिस्से में आई आपदा में पीड़ितों की मदद का हरसंभव प्रयास करती है।




नित्यानंदजी का पूरा जीवन संघ कार्य की प्रतिमूर्ति है। 9 फरवरी 1926 में रेलवे कर्मचारी श्योवरणजी के घर तीन बेटियों के बाद जन्मे बालक से पूरे परिवार को वंश बढ़ाने की उम्मीद थी। परंतु वो तो किसी और ही मिट्टी का बना था। उसने जीवन भर अविवाहित रहकर  सेवा की डगर पर चलने की राह चुनी। नित्यानंदजी को गरीब बच्चों के भविष्य की चिंता बड़ी सताती थी। ऐसे ही कमजोर बच्चों को पढ़ाने व आगे बढ़ाने के लिए नित्यानंद जी ने मनेरी के बाद उत्तरकाशी में लक्षेश्वरदेहरादून जिले के मागटी पोखरी, पाटिया व लटेरी में छात्रावास शुरू किए। यहां पढ़कर सैकड़ो छात्र अब सफलता की राह में आगे बढ़े हैं।


हिमालय पुत्र कहे जाने वाले नित्यानंदजी सचमुच आधुनिक संत थे। जीवन भर नौकरी करने वाले इस प्रोफेसर ने ना कभी अपना घर बनाया न ही अपने लिए कोई पैसा रखा। जब तक मां जिंदा रही एक जिम्मेदार बेटे का फर्ज निभाया व निधन के बाद मां के नाम पर श्रीमती भगवती देवी चैरिटेबल ट्रस्ट छात्रवृत्ति शुरू की। इस ट्रस्ट द्वारा प्रतिवर्ष वे 40 मेधावी छात्रों को  छात्रवृत्ति  देते रहे। 



 

पृथक उत्तराखंड का आंदोलन जब नक्सलियों के हाथ में जा रहा था तब नित्यानंद जी ने इसे राष्ट्रवाद  की ओर मोड़ कर उत्तरांचल के गठन की मांग की। प्रोफेसर नित्यानंद को उनके ग्राम विकास के कार्यों के लिए भी जाना जाता है। अल्मोड़ा में पटिया, थेया, टिहरी में भिगुन हो या फिर देहरादून के माटी पोखरी को मिलाकर 50 गांवों को मॉडल बनाने का सपना साकार करने के लिए वे निरंतर काम करते रहे। इसके लिए उन्होंने अपने विद्यार्थियों को सेवाकार्यों से जोड़ा। कोलकाता के बड़ा बाजार कुमार पुस्तकालय समिति व बनारस के भाऊरावदेवरस न्यास ने उन्हे सेवाकार्यो के लिए जब सम्मानित किया तो पुरस्कार राशि उन्होंने सेवाकार्यो के लिए दे दी।



 

इतिहास व भूगोल की अनेक पुस्तकें लिखने वाले नित्यानंदजी हिमालय पर अपने शोध के लिए भी जाने जाते है। उनके नाम पर डाक्टर नित्यानंद हिमालय शोध एवं अध्ययन केंद्र के नाम से एक यूनिवर्सिटी देहरादून में बन रही है।  इस आधुनिक संत ने 8 जनवरी 2016 में देहरादून संघ कार्यालय में अंतिम सांस ली। उनके साथ कई वर्ष कार्य कर चुके संघ के वरिष्ठ प्रचारक व विश्व संवाद केंद्र देहरादून के निदेशक विजय जी के शब्दों में कहें तो नित्यानंद जी आधुनिक युग के दधीचि थे जिन्होंने अपनी देह गला कर उत्तराखंड की घाटियों में सेवा का मार्ग प्रशस्त किया।

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