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हम रहें या ना रहें, भारत ये रहना चाहिये।

अंजु पांडे | मध्य प्रदेश

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कभी-कभी सच में मनुष्य पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है। भोपाल में अरेरा कॉलोनी के पॉश इलाके में किराये पर एक कमरा लेकर रहने वाली कल्पना विश्वकर्मा की कहानी भी कुछ ऐसा ही दर्द बयां करती है। एक पैर में गैंगरीन की वजह से लगभग अपाहिज हो चुकी गर्भवती कल्पना के लिए कोरोना काल अनगिनत मुसीबतें लेकर आया। एक तरफ उसके ससुर द्वारका प्रसाद विश्वकर्मा कोरोना संक्रमित होने के बाद जिंदगी व मौत की जंग लड़ रहे थे, तो दूसरी तरफ ऑटोचालक पति सोनू का रोजगार लाकडाऊन ने छीन लिया था।पेट में नन्हीं-सी जान लिए कल्पना के लिए ससुर के इलाज का खर्च जुटाना मुश्किल था, वहीं वो खुद भी दाने-दाने के लिए तरस रही थी। जब उसकी ये व्यथा भोपाल में सेवा भारती की महानगर महिला संयोजिका आभा दीदी तक पहुंचीं तो मानों सेवा भारती के रूप में साक्षात ईश्वर के द्वार उसके लिए खुल गये। सेवा के लिए संकल्पित सेवा भारती के कार्यकर्ताओं ने कल्पना के परिवार की सारी जिम्मेदारी अपने सर उठा ली। पहले उनके ससुर जी का इलाज करवाने के प्रयास किए किन्तु जब वे नहीं रहे तो उनके अंतिम संस्कार से लेकर तेरहवीं तक के सारे कर्तव्य निभाए। इतना ही नहीं, लॉकडाउन खत्म होने तक इस परिवार को राशन व गर्भवती कल्पना को समुचित आहार मिले इसकी व्यवस्था भी की गयी


इन दारुण कहानियों में एक कहानी ज्योति की भी थी जिसकी 8 साल की बेटी मनीषा कैंसर से जूझ रही थी। इंदौर की बाढ़ कॉलोनी में रहने वाली ज्योति जगह-जगह चौका-बासन कर अपना घर चलाती थी तो पति रिक्शा चालक थे। लॉकडाउन ने दोनों का ही रोजगार छीन लिया।कैंसर जैसी भयानक बीमारी से जूझ रही बच्ची जब अन्न के दाने-दाने के लिए तरसने लगी तब ज्योति ने इंदौर सेवा भारती के हेल्पलाइन पर प्रान्त संयोजिका सुनीता दीदी को राशन की जरूरत बताई। सुनीता दीदी बताती हैं कि वे आज भी फोन पर ज्योति के करुण क्रंदन को भुला नहीं पायीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने पूरे लॉकडाउन में इस परिवार को न सिर्फ राशन दिया बल्कि यथासंभव हर प्रकार की मदद भी की।

मैं रहूं ना रहूं ,भारत ये रहना चाहिए " मणिकर्णिका फिल्म के प्रसिद्ध गीत की ये पंक्तियां मानो संघ के स्वयंसेवकों के लिए ही लिखी गयी हैं। सीधी जिले के जिला सेवा प्रमुख आशीष जी की कहानी सुनकर तो यही लगता है। कोरोना-काल में निरंतर सेवा के काम में लगे आशीष जी जब कोरोना पाजिटिव होने के बाद कुशाभाऊ ठाकरे हॉस्पिटल, रीवा में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहे थे तभी एक नर्स से उन्हें पता चला कि एक गंभीर रूप से बीमार मरीज को चंद घंटों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की जरूरत है, तब अपनी जिंदगी खतरे में डालकर आशीष जी ने खुद का सिलेंडर 3 घंटे के लिए उस मरीज को दे दिया एवं स्वयं कपूर के सहारे कृत्रिम सांस लेते रहे। आज आशीष जी भी सकुशल हैं और वो महिला भी जिन्हें बचाने के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी।


मध्यक्षेत्र के क्षेत्र कार्यवाह अशोक अग्रवाल जी बताते हैं कि "सम्पूर्ण क्षेत्र में हर मोर्चे पर स्वयंसेवक समाज के साथ खड़े रहे। 589 हेल्पलाइन सेंटर्स ,123 आइसोलेशन केंद्र 17 कोविड केयर सेंटर के साथ, 649 जगहों पर 40,624 भोजन पैकेट बांटने जैसे कार्यों में 11077 कार्यकर्ताओं ने पूरे मनोयोग से अपना योगदान दिया।

रतलाम के पंचेड़ गांव में शत् प्रतिशत वैक्सीनेशन करवाकर स्वयंसेवकों ने इतिहास रच दिया। जब उनके गांव में कोरोना से मौत का आंकड़ा 30 पार हो गया तो वर्षों से वहां चल रही शाखा से जुड़े तरूण स्वयंसेवकों ने प्रण लिया कि वे अपने गांव को कोरोना से सुरक्षित रखने के हरसंभव प्रयास स्वयं करेंगे। पहले उन्होंने गांव को सील कर दिया और किसी को भी आने-जाने से रोक दिया जिसके कारण कोरोना की संक्रमण दर वहां शून्य हो गयी। बाद में पूरे गांव में घर- घर संपर्क कर जितने भी वैक्सीनेशन के योग्य लोग थे, सभी का वैक्सीनेशन, कैंपों में ले जाकर करवाया।

कोरोना की इस बार की लहर में बीहड़ जंगलों में भी कोरोना पहुंच गया। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में महामारी रोकने के लिए एक नया व सफल प्रयोग किया गया। खंडवा के विभाग सेवा प्रमुख अतुल शाह जी के अनुसार वनवासी बहुल इलाकों में ना तो कोई व्यक्ति अस्पताल आने को तैयार था और ना ही कोरोना की जांच करवाने के लिए राजी। सर्दी खांसी बुखार से मौतों का आंकड़ा निरंतर बढ़ रहा था। ऐसे में इंदौर के प्रसिद्ध हॉस्पिटल गोकुलदास के सीनियर डॉक्टरों ने ग्रामीण डॉक्टरों को ऑनलाइन ट्रेनिंग दी ताकि वे गांव में ही जांच कर सकें व संगठन ने इन्हें जांच के बाद प्राथमिक इलाज के लिए दवाइयां भी उपलब्ध करवाई। इन ग्रामीण डॉक्टरों के माध्यम से गुड़ी , सिंगोट, बोरगांव , गुलाई माल , रोशनी , पटाजन , झिंझरी , गोलखेड़ा , झुम्मरखली , एवं आस पास के अन्य गांवों में 14 ओपीडी निरंतर वनवासी इलाकों में जांच व प्राथमिक उपचार का कार्य करते हुए हजारों वनवासियों की जान बचा ली गई।

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