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अंबरीश पाठक | महाराष्ट्र
बबलू की नज़रें रेलवे प्लेटफार्म पर बेंच के नज़दीक बनें डस्टबिन पर टिकीं थीं। अचानक उन खाली आँखों में अजीब सी चमक पैदा हुई। तेजी से 12 बरस का यह बच्चा उधर लपका और डस्टबिन में पड़ी खाली बिसलरी की कुछ एक बोतलें उठाई और..... ये जा और ....वो ...जा। आज उसे घर से भागे हुए पूरा 1 महीना हो चला था। मुंबई में घाटकोपर का रेलवे प्लेटफार्म अब उसका घर था । यहाँ रहते हुए कफ सिरप और स्पिरिट गंध के नशे की लत का आदी बन चुका बबलू अब भूख मिटाने के लिए कूड़े के ढेर से कुछ भी बचा-खुचा खाना खोजकर खा लेता। माता-पिता की आँख का तारा बबलू शायद जिंदगी भर दर-दर की ठोकरें खाता रहता यदि समतोल फाऊंडेशन के कार्यकर्ताओं की निगाह उस पर न पड़ती। बबलू व उसके जैसे हजारों बच्चों का बचपन प्लेटफार्म की अंधेरी गलियों में गुम न हो जाए इसलिए फाऊंडेशन के कार्यकर्ता इन बच्चों की काऊंसलिंग कर इन्हें उनके अपनों तक पहुंचाने में लगे हैं।
संघ के सहयोग से चल रही इस संस्था की कोशिशों से अब तक 8000 बच्चे अब तक अपने घर लौट गए हैं । विजय रामचंद्र जाधव और उनके कुछ हमख्याल सहयोगियों नें जब घाटकोपर में 2006 में समतोल की शुरूआत की थी, तब जगह से लेकर धन तक कई समस्याएं मुंह बाएँ खड़ी थी। तब उस समय थाणे के स्वयंसेवक माधव जोशी की मुलाकात उन्हें वहाँ के तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री जयंत सहस्त्रबुद्धे तक ले गयी और तब से हमेशा के लिए संघ व समतोल अटूट बंधन में बंध गए। संघ के अनुसांगिक संगठन हिन्दू सेवा संघ ने थाणे जिले में मामनोली नाम के गाँव में मन परिवर्तन शिविर के लिए 1 एकड़ जमीन दान में दी व विभाग सहकार्यवाह महेश देशपांडे नें समतोल के कार्यालय के लिए पश्चिमी दादर में जगह दी व सेवासहयोग के जरिए कुछ ट्रस्टी मिले। अब तक संघ का प्राथमिक शिक्षावर्ग कर चुके विजय जी ने बच्चों की घरवापसी के लिए जिस मन परिवर्तन शिविर की रूपरेखा बनाई उसमें भी संस्कारमय शिक्षा व योग के साथ देशभक्ति की संघानुकूल शैली चुनी। वर्ष 2008 से ही समतोल की फील्ड टीम में काम कर रहीं लक्ष्मी मुकादम की याद में बबलू समेत न जानें कितने ही किशोरों की कहानी दर्ज है। वह 15 साल के सद्दाम मोहम्मद का किस्सा बताती हैं, जो उन्हें मुंबई के ही एक रेलवे प्लेटफार्म पर मिला था। यूपी के गाज़ियाबाद से भागकर यहां आए सद्दाम ने बताया कि पिता की पिटाई से नाराज़ होकर वो घर से भाग आया। पांच महीनें की प्लेटफॉर्म की आवारा जिंदगी में ये बच्चा तम्बाकू-सिगरेट की लत से घिर चुका था। कुछ ऐसे ही हालातों में यूपी के ही आज़मगढ़ का 11 साल का विजय उर्फ मुन्ना समतोल की टीम को स्टेशन पर मिला था। काम की तलाश में बिहार से मुंबई आया 8 साल का ज़ाहिद हो, या ऊंची इमारतें देखने और हवाई जहाज में बैठने का सपना संजोए दो दोस्त वीर और शक्ति हों सब के सब समतोल की टीम को प्लेटफॉर्म की अंधेरी दुनियां में खाक छानते मिले।
विजय जाधव जी बताते हैं - समता+ ममता+तोहफा+लक्ष्य, के योग से बनी समतोल के 45 दिवसीय मन परिवर्तन कैम्प के पश्चात जब इन बालकों को इनके माता-पिता से मिलाया जाता है, तब बहुत ही भावुक दृश्य होता है। आज भी उन्हें याद है कैसे सद्दाम की माँ जुबेदा खातून जब अपने बिछड़े बच्चे से मिलीं, वो रो रोकर समतोल के कार्यकर्ताओं को दुआएँ दे रहीं थी । अब बात करते हैं बबलू की जो मनपरिवर्तन शिविर के बाद पूरी तरह से बदल चुका था । जिस बबलू से माता-पिता का सही नाम उगलवाने में कार्यकर्ताओं के पसीने छूट गए थे वो परिवार को देखते ही माता पिता के कदमों में गिर गया । संस्था की सक्रिय कार्यकर्ता सुप्रिया की मानें तो इन किशोरों को पहले शेल्टर लाना और फिर 45 दिवसीय कैम्प करने के लिए राज़ी करना इतना आसान नहीं होता। बहुत से किशोर नशे व अन्य बुरी लतों के आदी होते हैं। झूठ बोल संस्था के कार्यकर्ताओं को बरगलाते भी हैं। इन तमाम मुश्किलों से जूझते हुए हमें इन किशोरों का विश्वास जीतना पड़ता है। काफी मशक्कत के पश्चात यह किशोर मन परिवर्तन शिविर में आने के लिए तैयार होते हैं। कैम्प के दौरान कॉउंसलिंग, खेल, योग के साथ साथ नैतिक कथाएँ सुनाई जाती हैं 45 दिन की नियमति व संस्कारमय जीवन शैली बच्चों के मन पर खासा असर डालती है, अब तक वो प्लेटफार्म की अंधेरी दुनिया की गिरफ्त से निकलकर सभ्य समाज के उजाले में जाने लायक आत्मविश्वास आ चुका होता है, विजय जी के मुताबिक संस्था को 70 किशोर ऐसे भी मिले, जिनका भरसक प्रयासों के बावजूद घर-ठिकाने का पता नहीं लग सका। ऐसे बालकों को उनके भाषाई मेल वाले राज्यों में चल रहे संघ के विभिन्न प्रकल्पों में शिक्षा के लिए भेज दिया गया है। हर माह करीब 100-150 बच्चे, जो घर से भाग मुंबई आते हैं, समतोल की टीम को प्लेटफार्मो पर भटकते हुए मिलते हैं, जहां शुरू होती है उन्हें दोबारा सही राह दिखाने की समतोल गाथा।
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