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मध्यप्रदेश | मध्य प्रदेश
जब भी हम कोई अच्छा काम
करने निकलते हैं, पग- पग पर
मुश्किलें मिलती हैं कभी-कभी हम विचलित होते हैं। किंतु यही बाधाएं हमें आगे की
राह दिखाती हैं ।कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन पर विजय पाकर नया इतिहास लिखते हैं।ये
लोग युगदृष्टा होते हैं, और इनके माध्यम
से जो काम होते हैं, वो भविष्य के
भाल पर सुनहरी शिलालेख लिखते हैं। आज हम
आपको सुनाते हैं खंडवा के एक डॉक्टर की कहानी।
बात 35 बरस पुरानी है। स्वर्गीय डॉक्टर बसंत लाल झंवर का यह विश्वास कि होम्योपैथी से संसार की सभी
बीमारियों का निदान संभव है पोलियो के समक्ष हार गया। अपने आस- पास के पोलियो
ग्रस्त बालकों की दुर्दशा देखकर एक स्वयंसेवक का मन अत्यधिक विचलित हो गया। इसी
पीड़ा ने 1990 में केशव धाम को जन्म
दिया। खंडवा के आस-पास के गांवों के निर्धन पोलियो ग्रस्त बालक इस छात्रावास में
रहकर पढ़ें और आत्मनिर्भर बनें इसी उद्देश्य से 1990 में दो कमरों से
केशवधाम की स्थापना की गई। अभी तक 550 से अधिक बालक यहां से पढ़कर एक बेहतर भविष्य
का निर्माण कर सके हैं। छात्रावास की एक
बड़ी जरूरत जमीन थी जिसे पूरा किया, संघ दृष्टि से खंडवा
विभाग के व्यवस्था प्रमुख बसंत लाल झंवर जी ने। 1989 में पूजनीय हेडगेवार जी की जन्म शताब्दी पर सेवाकार्यों के लिए निधि संकलन का आह्वान किया
गया था तब डाक्टर साहब ने आगे आकर अपनी
पुश्तैनी जमीन सेवाधाम के लिए दान कर दी। किंतु सबसे बड़ी चुनौती तो थी, आसपास के गांव से दिव्यांग बालकों को यहां लाने के लिए, उनके परिजनों को तैयार करना। ये बालक जीवन में आगे बढ़कर
कुछ कर सकते हैं यह मानना भी उनके लिए मुश्किल था और विश्वास कर छात्रावास में
छोड़ना और भी कठिन।तत्कालीन विभाग प्रचारक बालमुकुंद जी की प्रेरणा व सहयोग से
आसपास के गांव से पहले चार पोलियो ग्रस्त बालकों को यहां लाकर रखा गया।उन
दिनों संगठन के पास इस तरह के प्रकल्प को चलाने के लिए कोई धन नहीं होता था।
प्रकल्प समाज के सहयोग एवं कार्यकर्ताओं के सतत् प्रयासों से धीरे-धीरे आगे बढ़ते
थे। घर-घर से मंगल निधि के रूप में कभी ₹2 कभी₹5 तो कहीं-कहीं ₹50 इकट्ठा कर
बालकों के लिए भोजन पढ़ाई इत्यादि खर्चों की व्यवस्था की जाती थी। कुछ घरों से
अनाज भी मिल जाता था। धीरे-धीरे छात्रावास में बालकों की संख्या बढ़ने लगी तो तो समाज से अपने मंगल अवसरों पर 1 दिन के खर्च की व्यवस्था का आह्वान किया गया। लड़ाई सभी मोर्चों पर लड़नी थी इन दिव्यांग
बालकों की देखभाल करना खासा मुश्किल काम था। बहुत सारे बच्चे तो ऐसे आते थे जो रेंगकर चलते थे कुछ अपनी कमर के बल पर रहते थे ,इनका शरीर ही नहीं मन भी बहुत कमजोर था। मध्य
क्षेत्र पूर्व क्षेत्र सेवा प्रमुख एवं खंडवा में विभाग प्रचारक रहे श्री गोरेलाल
बार्चे बताते हैं उन दिनों दिव्यांगों के लिए छात्रावास सरकार के अलावा कोई नहीं
चलाता था।बहुत बार बालक घर जाकर वापस ही नहीं आना चाहते थे, परिवार का मानस भी उनके प्रति ठीक नहीं था। परिवर्तन की इस कथा में अब मिलते हैं गाडरवारा के सरकारी अस्पताल में
डॉक्टर प्रीतम जामरा से । मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर डाक्टर जामरा सबसे पहले अपने
गांव गोंडवानी जाने के बजाय केशवधाम आए व यहां की मिट्टी को प्रणाम किया, जिसने उन्हें एक समर्थ व आत्मनिर्भर जीवन
दिया। फिर मिठाई लेकर कल्पना
दीदी के पास पहुंचे जो छात्रावास के बच्चों को नि;शुल्क कोचिंग पढ़ाती थी।
जिन्होंने दिव्यांग और मेधावी
प्रीतम को बायोलॉजी लेकर डॉक्टर बनने की
प्रेरणा दी थी। देवली ग्राम के हरिसिंह चौहान हो या घाटाखेड़ी के दिनेश
बोरिया हो या फिर मोहनिया के लालू पवार व चाकरा के मंसाराम काजले ये सभी आज सरकारी स्कूलों में शिक्षक हैं एवं
अपने पूरे परिवार का लालन पालन कर रहे हैं ।ये दिव्यांग बालक जब केशवधाम में आए थे तब जीवन का ककहरा भी नहीं जानते थे
।यहीं पढ़कर अपने जीवन को इसी छात्रावास
के लिए समर्पित कर देने वाले अधीक्षक
रविंद्र चौहान बताते हैं कि विगत 28 वर्षों में यहां से निकले 80% बच्चे आज अपने पैरों पर खड़े हैं।डॉक्टर
इंजीनियर शिक्षक पटवारी लेखपाल बैंक कर्मचारी कंप्यूटर ऑपरेटर विविध क्षेत्रों में
नौकरी करने वाले इन बच्चों की एक लंबी श्रृंखला है, दिव्यांग रविंद्र बताते हैं कि गांव में तो पोलियो ग्रस्त बालक को लंगड़ा ही
मान लिया जाता था और उसे इसी नाम से पुकारा भी जाता है । इस प्रकार के बच्चे जीवन
भर किसी पर निर्भर करेंगे यह सहज स्वीकार कर लिया जाता है। इसलिए जब ये बालक
छात्रावास आते हैं उनके तन के साथ-साथ उनके मन को मजबूत करने के लिए बहुत जतन करने पड़ते हैं। वाधाम
को संचालित करने वाले श्रीमती सावित्री भाई झंवर सेवा न्यास खंडवा के सचिव एवं कई
वर्षों से इस कार्य की कमान संभाल रहे श्री भारत झंवर की मानें तो अनुशासित
दिनचर्या नियमित योगाभ्यास ,हल्के-फुल्के
खेलकूद के साथ नियमित पढ़ाई व सही विषय चुनने से लेकर सही कोचिंग उपलब्ध कराने तक
समिति उनके साथ हमेशा उपलब्ध रहती है।
उनकी दृष्टि से सबसे मुश्किल लड़ाई यह बालक
तब लड़ते हैं, जब इनके पोलियो
करेक्शन ऑपरेशन होते हैं। रेंग कर चलने
वाले बच्चों को बैसाखी तक पहुंचने में
कभी-कभी चार ऑपरेशन करने होते हैं जो एक लंबी प्रक्रिया होती है। प्रत्येक ऑपरेशन के बाद का एक माह बहुत मुश्किल समय होता है
और तब परिजनों के साथ-साथ छात्रावास में मौजूद सभी लोगों को उनकी देखभाल करनी
पड़ती है। डॉक्टर साहब संतोष के साथ बताते हैं
बहुत सारे बच्चे ऐसे भी है जो यहां आए थे तब कमर के बल चलते थे आज बैसाखियों और
वॉकर के सहारे चलते हैं। अपने हाथों को भी पैरों का इस्तेमाल कर चौपाया की तरह चलने वाले यह बच्चे जब खड़े होकर दो पैरों पर बैसाखी के जरिए चलते हैं तो परिजनों की खुशी देखने लायक होती है। यहां रहने वाले सभी बच्चों को संस्कारमय में शिक्षा दी जाती है, अपने देश के प्रति कर्तव्य का भान करवाया जाता है। इसका एक बड़ा उदाहरण श्री रामकृष्ण पाटिल है। यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी करने के बजाय रामकृष्ण पहले 3 वर्ष प्रचारक रहे, अब सेवा भारती में पूर्णकालिक के रूप में कार्य कर रहे हैं।
लेखक :-
विजयलक्ष्मी सिंह
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